Friday, October 24, 2008

उल्लू बनते जाईये…

जो भी मिले उल्लू बनते जाईये…
हर ठग को अपना आदर्श मानते जाईये।
शर्म हया को रखो ताक में ,
उल्लू बनने की कला सीखते जाईये।
शान से चांदी का जूता पहन कर ,
जिस का सर मिले उससे बजाते जाइये।
किसी को ठग ने में क्या जाता है ??
इंसान ही तो इंसान के काम आता है,
मुर्ख को मुर्ख बनाना में क्या घबराना
इसे अपना धर्मं मान का आगे बदते जाईये।
अपनी गीरेबा में झाकना बंद करो यार,
नहीं तो ख़ुद से आँख मिलाना मुश्किल हो जाएगा।

4 comments:

  1. aakhiri do linon ko bhi usi lay main rakhti jismain baaki sabhi line hain to achchha rahataa. ye to wo baat ho gai ki aagaaz to achchha tha magar anzaam par kaaboo nahi rahaa.

    kripayaa proof ki galti bhi durust karien.

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  2. पोस्ट लिखना बन्द क्यो कर दिया?

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  3. bahut achhaa,likhte rahiye,subhkamnaye.

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  4. बहुत शानदार ग़ज़ल शानदार भावसंयोजन हर शेर बढ़िया है आपको बहुत बधाईबेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको
    और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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